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आ त्वा॑ जिघर्मि॒ मन॑सा घृ॒तेन॑ प्रतिक्षि॒यन्तं॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। पृ॒थुं ति॑र॒श्चा वय॑सा बृ॒हन्तं॒ व्यचि॑ष्ठ॒मन्नै॑ रभ॒सं दृशा॑नम् ॥२३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। त्वा॒। जि॒घ॒र्मि॒। मन॑सा। घृ॒तेन॑। प्र॒ति॒क्षि॒यन्त॒मिति॑ प्रतिऽक्षि॒यन्त॑म्। भुव॑नानि। विश्वा॑। पृ॒थुम्। ति॒र॒श्चा। वय॑सा। बृ॒हन्त॑म्। व्यचि॑ष्ठम्। अन्नैः॑। र॒भ॒सम्। दृशा॑नम् ॥२३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य व्यापक वायु को किस साधन से जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ज्ञान चाहनेवाले पुरुष ! जैसे मैं (मनसा) मन तथा (घृतेन) घी के साथ (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकस्थ वस्तुओं में (प्रतिक्षियन्तम्) प्रत्यक्ष निवास और निश्चयकारक (तिरश्चा) तिरछे चलनेरूप (वयसा) जीवन से (पृथुम्) विस्तारयुक्त (बृहन्तम्) बड़े (अन्नैः) जौ आदि अन्नों के साथ (रभसम्) बलवाले (व्यचिष्ठम्) अतिशय करके फेंकनेवाले (दृशानम्) देखने योग्य वायु के गुणों को (आजिघर्मि) अच्छे प्रकार प्रकाशित करता हूँ, वैसे (त्वा) आप को भी इस वायु के गुणों को धारण कराता हूँ ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य अग्नि के द्वारा सुगन्धि आदि द्रव्यों को वायु में पहुँचा उस सुगन्ध से रोगों को दूर कर अधिक अवस्था को प्राप्त होवें ॥२३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्या व्यापिनं वायुं केन जानीयुरित्याह ॥

अन्वय:

(आ) (त्वा) त्वाम् (जिघर्मि) (मनसा) (घृतेन) आज्येन (प्रतिक्षियन्तम्) प्रत्यक्षं निवसन्तम् (भुवनानि) भवन्ति येषु तानि वस्तूनि (विश्वा) सर्वाणि (पृथुम्) विस्तीर्णम् (तिरश्चा) येन तिरोऽञ्चति तेन (वयसा) जीवनेन (बृहन्तम्) महान्तम् (व्यचिष्ठम्) अतिशेयन विचितारं प्रक्षेप्तारम् (अन्नैः) यवादिभिः (रभसम्) वेगवन्तम् (दृशानम्) संप्रेक्षणीयम्। [अयं मन्त्रः शत०६.३.३.१९ व्याख्यातः] ॥२३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जिज्ञासो ! यथाऽहं मनसा घृतेन सह विश्वा भुवनानि प्रतिक्षियन्तं तिरश्चा वयसा पृथुं बृहन्तमन्नैः सह रभसं व्यचिष्ठं दृशानं वायुमाजिघर्मि तथा त्वा त्वामप्येनं धारयामि ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या अग्निद्वारा सुगन्ध्यादीनि द्रव्याणि वायौ प्रक्षिप्य तेन युक्तसुगन्धेनारोगीकृत्य दीर्घं जीवनं प्राप्नुवन्तु ॥२३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी यज्ञाग्रीद्वारे सुगंधी पदार्थ वायूत प्रसृत करून त्या सुगंधाने रोग दूर करावेत व आयुष्य वाढवावे.